EN اردو
कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया | शाही शायरी
koi dawa na de sake mashwara-e-dua diya

ग़ज़ल

कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया

हफ़ीज़ जालंधरी

;

कोई दवा न दे सके मशवरा-ए-दुआ दिया
चारागरों ने और भी दर्द दिल का बढ़ा दिया

दोनों को दे के सूरतें साथ ही आइना दिया
इश्क़ बिसोरने लगा हुस्न ने मुस्कुरा दिया

ज़ौक़-ए-निगाह के सिवा शौक़-ए-गुनाह के सिवा
मुझ को बुतों से क्या मिला मुझ को ख़ुदा ने क्या दिया

थी न ख़िज़ाँ की रोक-थाम दामन-ए-इख़्तियार में
हम ने भरी बहार में अपना चमन लुटा दिया

हुस्न-ए-नज़र की आबरू सनअत-ए-बरहमन से है
जिस को सनम बना लिया उस को ख़ुदा बना दिया

दाग़ है मुझ पे इश्क़ का मेरा गुनाह भी तो देख
उस की निगाह भी तो देख जिस ने ये गुल खिला दिया

इश्क़ की मम्लिकत में है शोरिश-ए-अक़्ल-ए-ना-मुराद
उभरा कहीं जो ये फ़साद दिल ने वहीं दबा दिया

नक़्श-ए-वफ़ा तो मैं ही था अब मुझे ढूँडते हो क्या
हर्फ़-ए-ग़लत नज़र पड़ा तुम ने मुझे मिटा दिया

ख़ुब्स-ए-दरूँ दिखा दिया हर दहन-ए-ग़लीज़ ने
कुछ न कहा 'हफ़ीज़' ने हँस दिया मुस्कुरा दिया