EN اردو
ख़्वाब को दिन की शिकस्तों का मुदावा न समझ | शाही शायरी
KHwab ko din ki shikaston ka mudawa na samajh

ग़ज़ल

ख़्वाब को दिन की शिकस्तों का मुदावा न समझ

साक़ी फ़ारुक़ी

;

ख़्वाब को दिन की शिकस्तों का मुदावा न समझ
नींद पर तकिया न कर शब को मसीहा न समझ

हिज्र के शहर में गुलज़ार कहाँ मिलते हैं
सुब्ह को दश्त समझ शाम को वीराना समझ

मैं कहीं और का टूटा हुआ तारा हूँ कोई
तू मुझे अपने सितारों से उलझता न समझ

मुझ पे खुल जा कि मिरे दिल में कोई पेच पड़े
अपनी तन्हाई के असरार-ए-ज़ुलेख़ाना समझ

रास्ता दे कि मोहब्बत में बदन शामिल है
मैं फ़क़त रूह नहीं हूँ मुझे हल्का न समझ