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ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी | शाही शायरी
KHud ko pane ki talab mein aarzu uski bhi thi

ग़ज़ल

ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी

ज़ुहूर नज़र

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ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी
मैं जो मिल जाता तो उस में आबरू उस की भी थी

ज़िंदगी इक दूसरे को ढूँडने में कट गई
जुस्तुजू मेरी भी दुश्मन थी अदू उस की भी थी

मेरी बातों में भी तल्ख़ी थी सम-ए-तन्हाई की
ज़हर-ए-तन्हाई में डूबी गुफ़्तुगू उस की भी थी

वो गया तो करवटें ले ले के पहलू थक गए
किस तरह सोता मिरे साँसों में बू उस की भी थी

रात भर आँखों में उस का मरमरीं पैकर रहा
चाँदनी के झिलमिलाने में नुमू उस की भी थी

घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल
मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी

मैं हुआ ख़ाइफ़ तो उस के भी उड़े होश-ओ-हवास
मेरी जो सूरत हुई वो हू-ब-हू उस की भी थी

कुछ मुझे भी सीधे-साधे रास्तों से बैर है
कुछ भटक जाने के बाइस जुस्तुजू उस की भी थी

वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब
मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी

दश्त-ए-फ़ुर्क़त का सफ़र भी आख़िरश तय हो गया
और कुछ दिन साथ देता आरज़ू उस की भी थी

बात बढ़ने को तो बढ़ जाती बहुत लेकिन 'नज़र'
मैं भी कुछ कम-गो था चुप रहने की ख़ू उस की भी थी