ख़ानुमाँ-सोज़ मा-सिवा हूँ मैं
अपने साए से भी जुदा हूँ मैं
ग़ौर हर चंद कर रहा हूँ मैं
पर ये खुलता नहीं कि क्या हूँ मैं
नहीं इस रह में दूसरे की खपत
आप ही अपना रहनुमा हूँ मैं
वो अगर आ मिलें तो क्या है अजब
ग़म से कुछ और हो गया हूँ मैं
दिल है शौक़-ए-गुनाह से लबरेज़
देखने ही का पारसा हूँ मैं
क्यूँ न हो दार का वो मुस्तौजिब
जो कि बंदा कहे ख़ुदा हूँ मैं
सोज़-ए-दिल कर चुका है जिस्म को ख़ाक
अब तिरा मुंतज़िर सबा हूँ मैं
हर लब-ए-ज़ख्म-ए-तन से मैं दम-ए-क़त्ल
कहता क़ातिल को मर्हबा हूँ मैं
उन सा मग़रूर और पुर्सिश-ए-हाल
ख़्वाब है ये जो देखता हूँ मैं
मुझ सा होगा न सख़्त-जाँ कोई
कि शब-ए-हिज्र में जिया हूँ मैं
मेरी पुर्सिश जो की किसी ने तो वो
बोले हाँ सूरत-आश्ना हूँ मैं
शारेह-ए-हाल-ए-दिल समझ मुझ को
दर्द ही दर्द हो गया हूँ मैं
आँख तक डालता नहीं गाहक
कुछ अजब जिंस-ए-ना-रवा हूँ मैं
रोज़-ओ-शब है ख़याल-ए-काकुल-ओ-ज़ुल्फ़
किन बलाओं में फँस रहा हूँ मैं
मिस्ल-ए-नश्तर हैं ख़ार-ए-सहराई
और वहशत बरहना-पा हूँ मैं
कल जो मैं ने कहा कि ओ बे-मेहर
दर्द-ए-फ़ुर्क़त से मर रहा हूँ मैं
हँस के बोले ये सब बनावट है
आप को ख़ूब जानता हूँ मैं
दिखने क्या ज़ख़्म-ए-दिल लगे 'मजरूह'
हाए हाए जो कर रहा हूँ मैं
ग़ज़ल
ख़ानुमाँ-सोज़ मा-सिवा हूँ मैं
मीर मेहदी मजरूह