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कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला | शाही शायरी
kamal-e-husn ka jis se tumhein KHazana mila

ग़ज़ल

कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला

अातिश बहावलपुरी

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कमाल-ए-हुस्न का जिस से तुम्हें ख़ज़ाना मिला
मुझे इसी से ये अंदाज़-ए-आशिक़ाना मिला

जबीन-ए-शौक़ को आसूदगी नसीब हुई
सर-ए-नियाज़ को जब तेरा आस्ताना मिला

तमाम उम्र सहारों की जुस्तुजू में रहा
वो बद-नसीब जिसे तेरा आसरा न मिला

कमी न थी मिरी दुनिया में आश्नाओं की
सितम तो ये है कोई दर्द-आश्ना न मिला

सनम-कदों में तो असनाम जल्वा-फ़रमा थे
ख़ुदा के घर में भी मुझ को कहीं ख़ुदा न मिला

तुम्हें तो अपनी जफ़ाओं की ख़ूब दाद मिली
मिरी वफ़ाओं का मुझ को कोई सिला न मिला

चमन में रह के भी 'आतिश' ख़िज़ाँ-नसीबों को
कभी बहार का पैग़ाम-ए-जाँ-फ़ज़ा न मिला