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कहीं वो मेरी मोहब्बत में घुल रहा ही न हो | शाही शायरी
kahin wo meri mohabbat mein ghul raha hi na ho

ग़ज़ल

कहीं वो मेरी मोहब्बत में घुल रहा ही न हो

अहमद नदीम क़ासमी

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कहीं वो मेरी मोहब्बत में घुल रहा ही न हो
ख़ुदा करे उसे ये तजरबा हुआ ही न हो

सुपुर्दगी मिरा मेआ'र तो नहीं लेकिन
मैं सोचता हूँ तिरे रूप में ख़ुदा ही न हो

मैं तुझ को पा के भी किस शख़्स की तलाश में हूँ
मिरे ख़याल में कोई तिरे सिवा ही न हो

वो उज़्र कर कि मिरे दिल को भी यक़ीं आए
वो गीत गा कि जो मैं ने कभी सुना ही न हो

वो बात कर जिसे फैला के मैं ग़ज़ल कह लूँ
सुनाऊँ शे'र जो मैं ने अभी लिखा ही न हो

सहर को दिल की तरफ़ ये धुआँ सा कैसा है
कहीं ये मेरा दिया रात-भर जला ही न हो

हो कैसे जब्र-ए-मशीयत को इस दुआ का लिहाज़
जो एक बार मिले फिर कभी जुदा ही न हो

ये अब्र-ओ-किश्त की दुनिया में कैसे मुमकिन है
कि उम्र-भर की वफ़ा का कोई सिला ही न हो

मिरी निगाह में वो पेड़ भी है बद-किर्दार
लदा हुआ हो जो फल से मगर झुका ही न हो

जो दश्त दश्त से फूलों की भीक माँगता था
कहीं वो तोड़ के कश्कोल मर गया ही न हो

तुलू-ए-सुब्ह ने चमका दिए हैं अब्र के चाक
'नदीम' ये मिरा दामान-ए-मुद्दआ' ही न हो