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कभी ख़ंदाँ कभी गिर्यां कभी रक़सा चलिए | शाही शायरी
kabhi KHandan kabhi giryan kabhi raqsa chaliye

ग़ज़ल

कभी ख़ंदाँ कभी गिर्यां कभी रक़सा चलिए

अली सरदार जाफ़री

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कभी ख़ंदाँ कभी गिर्यां कभी रक़सा चलिए
दूर तक साथ तिरे उम्र-ए-गुरेज़ाँ चलिए

रस्म-ए-देरीना-ए-आलम को बदलने के लिए
रस्म-ए-देरीना-ए-आलम से गुरेज़ाँ चलिए

आसमानों से बरसता है अँधेरा कैसा
अपनी पलकों पे लिए जश्न-ए-चराग़ाँ चलिए

शोला-ए-जाँ को हवा देती है ख़ुद बाद-ए-सुमूम
शोला-ए-जाँ की तरह चाक-गरेबाँ चलिए

अक़्ल के नूर से दिल कीजिए अपना रौशन
दिल की राहों से सू-ए-मंज़िल-ए-इंसाँ चलिए

ग़म नई सुब्ह के तारे का बहुत है लेकिन
ले के अब परचम-ए-ख़ुर्शीद-ए-दरख़्शाँ चलिए

सर-ब-कफ़ चलने की आदत में न फ़र्क़ आ जाए
कूचा-ए-दार में सर-मस्त-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ चलिए