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कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया | शाही शायरी
kabhi jo maine masarrat ka ehtimam kiya

ग़ज़ल

कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया

ख़ुमार बाराबंकवी

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कभी जो मैं ने मसर्रत का एहतिमाम किया
बड़े तपाक से ग़म ने मुझे सलाम किया

हज़ार तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ का एहतिमाम किया
मगर जहाँ वो मिले दिल ने अपना काम किया

ज़माने वालों के डर से उठा न हाथ मगर
नज़र से उस ने ब-सद मा'ज़रत सलाम किया

कभी हँसे कभी आहें भरीं कभी रोए
ब-क़द्र-ए-मर्तबा हर ग़म का एहतिराम किया

हमारे हिस्से की मय काम आए प्यासों के
ज़े-राह-ए-ख़ैर गुनाह-ए-शिकस्त-ए-जाम किया

तुलू-ए-महर से भी घर की तीरगी न घटी
इक और शब कटी या मैं ने दिन तमाम किया

दुआ ये है न हों गुमराह हम-सफ़र मेरे
'ख़ुमार' मैं ने तो अपना सफ़र तमाम किया