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जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना | शाही शायरी
jun nikhat-e-gul jumbish hai ji ka nikal jaana

ग़ज़ल

जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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जूँ निकहत-ए-गुल जुम्बिश है जी का निकल जाना
ऐ बाद-ए-सबा मेरी करवट तो बदल जाना

पा-लग़्ज़-ए-मोहब्बत से मुश्किल है सँभल जाना
उस रुख़ की सफ़ाई पर इस दिल का बहल जाना

सीने में जो दिल तड़पा धर ही तो दिया देखा
फिर भूल गया कैसा मैं हाथ का फल जाना

इतना तो न घबराओ राहत यहीं फ़रमाओ
घर में मिरे रह जाओ आज और भी कल जाना

ऐ दिल वो जो याँ आया क्या क्या हमें तरसाया
तू ने कहीं सिखलाया क़ाबू से निकल जाना

क्या ऐसे से दावा हो महशर में कि मैं ने तो
नज़्ज़ारा-ए-क़ातिल को एहसान-ए-अजल जाना

है ज़ुल्म करम जितना था फ़र्क़ पड़ा कितना
मुश्किल है मिज़ाज इतना इक बार बदल जाना

हूरों की सना-ख़्वानी वाइज़ यूँ ही कब मानी
ले आ कि है नादानी बातों में बहल जाना

इश्क़ उन की बला जाने आशिक़ हों तो पहचाने
लो मुझ को अतिब्बा ने सौदे का ख़लल जाना

क्या बातें बनाता है वो जान जलाता है
पानी में दिखाता है काफ़ूर का जल जाना

मतलब है कि वसलत में है बुल-हवस आफ़त में
इस गर्मी-ए-सोहबत में ऐ दिल न पिघल जाना

दम लेने की ताक़त है बीमार-ए-मोहब्बत है
इतना भी ग़नीमत है 'मोमिन' का सँभल जाना