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जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है | शाही शायरी
junun-e-shauq ab bhi kam nahin hai

ग़ज़ल

जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है

असरार-उल-हक़ मजाज़

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जुनून-ए-शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है

बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

तक़ाज़े क्यूँ करूँ पैहम न साक़ी
किसे याँ फ़िक्र-ए-बेश-ओ-कम नहीं है

उधर मश्कूक है मेरी सदाक़त
इधर भी बद-गुमानी कम नहीं है

मिरी बर्बादियों का हम-नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

अभी बज़्म-ए-तरब से क्या उठूँ मैं
अभी तो आँख भी पुर-नम नहीं है

ब-ईं सैल-ए-ग़म ओ सैल-ए-हवादिस
मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है

'मजाज़' इक बादा-कश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है