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जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं | शाही शायरी
jamegi kaise bisat-e-yaran ki shisha o jam bujh gae hain

ग़ज़ल

जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं
सजेगी कैसे शब-ए-निगाराँ कि दिल सर-ए-शाम बुझ गए हैं

वो तीरगी है रह-ए-बुताँ में चराग़-ए-रुख़ है न शम-ए-वादा
किरन कोई आरज़ू की लाओ कि सब दर-ओ-बाम बुझ गए हैं

बहुत सँभाला वफ़ा का पैमाँ मगर वो बरसी है अब के बरखा
हर एक इक़रार मिट गया है तमाम पैग़ाम बुझ गए हैं

क़रीब आ ऐ मह-ए-शब-ए-ग़म नज़र पे खुलता नहीं कुछ इस दम
कि दिल पे किस किस का नक़्श बाक़ी है कौन से नाम बुझ गए हैं

बहार अब आ के क्या करेगी कि जिन से था जश्न-ए-रंग-ओ-नग़्मा
वो गुल सर-ए-शाख़ जल गए हैं वो दिल तह-ए-दाम बुझ गए हैं