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जब से हुआ है इश्क़ तिरे इस्म-ए-ज़ात का | शाही शायरी
jab se hua hai ishq tere ism-e-zat ka

ग़ज़ल

जब से हुआ है इश्क़ तिरे इस्म-ए-ज़ात का

आग़ा हज्जू शरफ़

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जब से हुआ है इश्क़ तिरे इस्म-ए-ज़ात का
आँखों में फिर रहा है मुरक़्क़ा नजात का

मालिक ही के सुख़न में तलव्वुन जो पाइए
कहिए यक़ीन लाइए फिर किस की बात का

दफ़्तर हमारी उम्र का देखोगे जब कभी
फ़ौरन उसे करोगे मुरक़्क़ा नजात का

उल्फ़त में मर मिटे हैं तो पूछे ही जाएँगे
इक रोज़ लुत्फ़ उठाएँगे इस वारदात का

सुर्ख़ी की ख़त्त-ए-शौक़ में हाजत जहाँ हुई
ख़ून-ए-जिगर में नोक डुबोया दवात का

मूजिद जो नूर का है वो मेरा चराग़ है
परवाना हूँ मैं अंजुमन-ए-काएनात का

ऐ शम्-ए-बज़्म-ए-यार वो परवाना कौन था
लौ में तिरी ये दाग़ है जिस की वफ़ात का

मुझ से तो लन-तरानियाँ उस ने कभी न कीं
मूसी जवाब दे न सके जिस की बात का

इस बे-ख़ुदी का देंगे ख़ुदा को वो क्या जवाब
दम भरते हैं जो चंद नफ़स के हुबाब का

क़ुदसी हुए मुतीअ वो ताअत बशर ने की
कुल इख़्तियार हक़ ने दिया काएनात का

ऐसा इताब-नामा तो देखा सुना नहीं
आया है किस के वास्ते सूरा बरात का

ज़ी-रूह मुझ को तू ने किया मुश्त-ए-ख़ाक से
बंदा रहूँगा मैं तिरे इस इल्तिफ़ात का

नाचीज़ हूँ मगर मैं हूँ उन का फ़साना-गो
क़ुरआन हम्द-नामा है जिन की सिफ़ात का

रोया है मेरा दीदा-ए-तर किस शहीद को
मशहूर हो गया है जो चश्मा फ़ुरात का

आए तो आए आलम-ए-अर्वाह से वहाँ
दम भर जहाँ नहीं है भरोसा सबात का

धूम उस के हुस्न की है दो-आलम में ऐ 'शरफ़'
ख़ुर्शीद रोज़ का है वो महताब रात का