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इश्क़ फिर इश्क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे है | शाही शायरी
ishq phir ishq hai aashufta-sari mange hai

ग़ज़ल

इश्क़ फिर इश्क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे है

उनवान चिश्ती

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इश्क़ फिर इश्क़ है आशुफ़्ता-सरी माँगे है
होश के दौर में भी जामा-दरी माँगे है

हाए आग़ाज़-ए-मोहब्बत में वो ख़्वाबों के तिलिस्म
ज़िंदगी फिर वही आईना-गरी माँगे है

दिल जलाने पे बहुत तंज़ न कर ऐ नादाँ
शब-ए-गेसू भी जमाल-ए-सहरी माँगे है

मैं वो आसूदा-ए-जल्वा हूँ कि तेरी ख़ातिर
हर कोई मुझ से मिरी ख़ुश-नज़री माँगे है

तेरी महकी हुई ज़ुल्फ़ों से ब-अंदाज़-ए-हसीं
जाने क्या चीज़ नसीम-ए-सहरी माँगे है

आप चाहें तो तसव्वुर भी मुजस्सम हो जाए
ज़ौक़-ए-आज़र तो नई जल्वागरी माँगे है

हुस्न ही तो नहीं बेताब-ए-नुमाइश 'उनवाँ'
इश्क़ भी आज नई जल्वागरी माँगे है