EN اردو
इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से | शाही शायरी
is KHarabi ki koi had hai ki mere ghar se

ग़ज़ल

इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से

विपुल कुमार

;

इस ख़राबी की कोई हद है कि मेरे घर से
संग उठाए दर-ओ-दीवार निकल आते हैं

क्या क़यामत है कि दर-क़ाफ़िला-ए-रहरव-ए-शौक़
कुछ क़यामत के भी हमवार निकल आते हैं

इतना हैरान न हो मेरी अना पर प्यारे
इश्क़ में भी कई ख़ुद्दार निकल आते हैं

इस क़दर ख़स्ता-तनी है कि गले मिलते हुए
उस की बाँहों से भी हम पार निकल आते हैं

जुज़ तिरे ख़ुद भी मैं तस्लीम नहीं हूँ ख़ुद को
दिल से पूछूँ भी तो इंकार निकल आते हैं