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हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से | शाही शायरी
hui ghazal hi na kuchh baat ban saki humse

ग़ज़ल

हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से

अहमद अता

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हुई ग़ज़ल ही न कुछ बात बन सकी हम से
ये सरगुज़िश्त-ए-जुनूँ कब बयाँ हुई हम से

सड़क पे बैठ गए देखते हुए दुनिया
और ऐसे तर्क हुई एक ख़ुद-कुशी हम से

हम आ गए थे घने बरगदों के साए में
सौ बात करने चली आई रौशनी हम से

वो ख़्वाब क्या था कि जो भूलने लगा दम-ए-सुब्ह
वो रात कैसी थी जो रूठने लगी हम से

बुझा के अपने अलाव पड़ा हमें छुपना
तो यूँ कहानी फ़रामोश हो गई हम से

हम आज फिर बड़ी ताब-ओ-तवाँ से जुलते हैं
फिर आज सहम तो जाएगी तीरगी हम से

हम आज भी उसी दरवाज़े की बने थे दर्ज़
वो बे-नियाज़ उसी तरह फिर मिली हम से