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हिज्र इक हुस्न है इस हुस्न में रहना अच्छा | शाही शायरी
hijr ek husn hai is husn mein rahna achchha

ग़ज़ल

हिज्र इक हुस्न है इस हुस्न में रहना अच्छा

अख़्तर हुसैन जाफ़री

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हिज्र इक हुस्न है इस हुस्न में रहना अच्छा
चश्म-ए-बे-ख़्वाब को ख़ूँ-नाब का गहना अच्छा

कोई तश्बीह का ख़ुर्शीद न तलमीह का चाँद
सर-ए-क़िर्तास लगा हर्फ़-ए-बरहना अच्छा

पार उतरने में भी इक सूरत-ए-ग़र्क़ाबी है
कश्ती-ए-ख़्वाब रह-मौज पे बहना अच्छा

यूँ नशेमन नहीं हर रोज़ उठाए जाते
उसी गुलशन में उसी डाल पे रहना अच्छा

बे-दिली शर्त-ए-वफ़ा ठहरी है मेआर तो देख
मैं बुरा और मिरा रंज न सहना अच्छा

धूप उस हुस्न की यक-लहज़ा मयस्सर तो हुई
फिर न ता-उम्र लगा साए में रहना अच्छा

दिल जहाँ बात करे दिल ही जहाँ बात सुने
कार-ए-दुश्वार है उस तर्ज़ में कहना अच्छा