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हज़ारों आरज़ूएँ साथ हैं इस पर अकेली है | शाही शायरी
hazaron aarzuen sath hain is par akeli hai

ग़ज़ल

हज़ारों आरज़ूएँ साथ हैं इस पर अकेली है

शाद अज़ीमाबादी

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हज़ारों आरज़ूएँ साथ हैं इस पर अकेली है
हमारी रूह बे-बूझी हुई अब तक पहेली है

बुढ़ापा हो तो हो उस रब्त में क्यूँ कर ख़लल आए
मिरी यास-ओ-तमन्ना बचपने से साथ खेली है

अजल भी टल गई देखी गई हालत न आँखों से
शब-ए-ग़म में मुसीबत सी मुसीबत हम ने झेली है

अदम का था सफ़र जब और कुछ तोशा न हाथ आया
बहुत सी आरज़ू चलते चलाते साथ ले ली है

ज़रा देखो तो उन उतरे हुए चेहरों को फूलों के
मआ'ज़-अल्लाह झोंका है ख़िज़ाँ का या कि सेली है

कभी जमने न देती बे-ख़ुदी ख़ातिर पे नक़्श उन का
ब-मुश्किल मैं ने ये तस्वीर उसी अय्यार से ली है

हमारी और गुलों की एक है नश्व-ओ-नुमा लेकिन
वहाँ मुट्ठी में ज़र है और यहाँ ख़ाली हथेली है

न पूछो 'शाद' वीरानी को दिल की क्या बताऊँ मैं
तमन्ना जा चुकी हसरत ग़रीब इस में अकेली है