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हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है | शाही शायरी
harif-e-dastan karna paDa hai

ग़ज़ल

हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है

अख़्तर होशियारपुरी

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हरीफ़-ए-दास्ताँ करना पड़ा है
ज़मीं को आसमाँ करना पड़ा है

निकल कर आ गए हैं जंगलों में
मकाँ को ला-मकाँ करना पड़ा है

सवा नेज़े पे सूरज आ गया था
लहू को साएबाँ करना पड़ा है

बहुत तारीक थीं हस्ती की राहें
बदन को कहकशाँ करना पड़ा है

किसे मालूम लम्स उन उँगलियों का
हवा को राज़-दाँ करना पड़ा है

वो शायद कोई सच्ची बात कह दे
उसे फिर बद-गुमाँ करना पड़ा है

मैं अपने सारे पत्ते फ़ाश करता
मगर ऐसा कहाँ करना पड़ा है

सफ़र आसाँ नहीं हरफ़ ओ क़लम का
हमें तय हफ़्त-ख़्वाँ करना पड़ा है

था जिस से इख़्तिलाफ़-ए-राय मुमकिन
उसी को मेहरबाँ करना पड़ा है

सफ़-ए-आदा में अपने बाज़ुओं को
मुझे 'अख़्तर' कमाँ करना पड़ा है