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हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़ | शाही शायरी
hargiz kabhi kisi se na rakhna dila gharaz

ग़ज़ल

हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़

शाद अज़ीमाबादी

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हरगिज़ कभी किसी से न रखना दिला ग़रज़
जब कुछ ग़रज़ नहीं तो ज़माने से क्या ग़रज़

फैला के हाथ मुफ़्त में होंगे ज़लील हम
महरूम तेरे दर से फिरेगी दुआ ग़रज़

दुनिया में कुछ तो रूह को इस जिस्म से है काम
मिलता है वर्ना कौन किसी से बिला ग़रज़

वस्ल ओ फ़िराक़ ओ हसरत ओ उम्मीद से खुला
हमराह है हर एक बक़ा के फ़ना ग़रज़

इक फिर के देखने में गई सैकड़ों की जाँ
तेरी हर इक अदा में भरी है जफ़ा ग़रज़

देखा तो था यही सबब-ए-हसरत-ओ-अलम
मजबूर हो के तर्क किया मुद्दआ ग़रज़

क्यूँकर न रूह ओ जिस्म से हो चंद दिन मिलाप
इस को जुदा ग़रज़ है तो उस को जुदा ग़रज़

इल्ज़ाम ता-कि सर पे किसी तरह का न हो
ऐ 'शाद' ढूँडती है बहाने क़ज़ा ग़रज़