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हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ | शाही शायरी
har ek maqam se aage guzar gaya mah-e-nau

ग़ज़ल

हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ

अल्लामा इक़बाल

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हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
कमाल किस को मयस्सर हुआ है बे-तग-ओ-दौ

नफ़स के ज़ोर से वो ग़ुंचा वा हुआ भी तो क्या
जिसे नसीब नहीं आफ़्ताब का परतव

निगाह पाक है तेरी तो पाक है दिल भी
कि दिल को हक़ ने किया है निगाह का पैरव

पनप सका न ख़याबाँ में लाला-ए-दिल-सोज़
कि साज़गार नहीं ये जहान-ए-गंदुम-ओ-जौ

रहे न 'ऐबक' ओ 'ग़ौरी' के मारके बाक़ी
हमेशा ताज़ा ओ शीरीं है नग़्मा-ए-'ख़ुसरौ'