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हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था | शाही शायरी
hans raha tha main bahut go waqt wo rone ka tha

ग़ज़ल

हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था

शहरयार

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हँस रहा था मैं बहुत गो वक़्त वो रोने का था
सख़्त कितना मरहला तुझ से जुदा होने का था

रत-जगे तक़्सीम करती फिर रही हैं शहर में
शौक़ जिन आँखों को कल तक रात में सोने का था

इस सफ़र में बस मिरी तन्हाई मेरे साथ थी
हर क़दम क्यूँ ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था

हर बुन-ए-मू से दरिंदों की सदा आने लगी
काम ही ऐसा बदन में ख़्वाहिशें बोने का था

मैं ने जब से ये सुना है ख़ुद से भी नादिम हूँ मैं
ज़िक्र तुझ होंटों पे मेरे दर-ब-दर होने का था