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हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं | शाही शायरी
hum apne raftagan ko yaad rakhna chahte hain

ग़ज़ल

हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं

इफ़्तिख़ार आरिफ़

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हम अपने रफ़्तगाँ को याद रखना चाहते हैं
दिलों को दर्द से आबाद रखना चाहते हैं

मुबादा मुंदमिल ज़ख़्मों की सूरत भूल ही जाएँ
अभी कुछ दिन ये घर बरबाद रखना चाहते हैं

बहुत रौनक़ थी उन के दम क़दम से शहर-ए-जाँ में
वही रौनक़ हम उन के बा'द रखना चाहते हैं

बहुत मुश्किल ज़मानों में भी हम अहल-ए-मोहब्बत
वफ़ा पर इश्क़ की बुनियाद रखना चाहते हैं

सरों में एक ही सौदा कि लौ देने लगे ख़ाक
उमीदें हस्ब-ए-इस्तेदाद रखना चाहते हैं

कहीं ऐसा न हो हर्फ़-ए-दुआ मफ़्हूम खो दे
दुआ को सूरत-ए-फ़रियाद रखना चाहते हैं

क़लम आलूदा-ए-नान-ओ-नमक रहता है फिर भी
जहाँ तक हो सके आज़ाद रखना चाहते हैं