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गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है | शाही शायरी
guzar chuka hai jo lamha wo irtiqa mein hai

ग़ज़ल

गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है

आसिम वास्ती

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गुज़र चुका है जो लम्हा वो इर्तिक़ा में है
मिरी बक़ा का सबब तो मिरी फ़ना में है

नहीं है शहर में चेहरा कोई तर ओ ताज़ा
अजीब तरह की आलूदगी हवा में है

हर एक जिस्म किसी ज़ाविए से उर्यां है
है एक चाक जो मौजूद हर क़बा में है

ग़लत-रवी को तिरी मैं ग़लत समझता हूँ
ये बेवफ़ाई भी शामिल मिरी वफ़ा में है

मिरे गुनाह में पहलू है एक नेकी का
जज़ा का एक हवाला मिरी सज़ा में है

अजीब शोर मचाने लगे हैं सन्नाटे
ये किस तरह की ख़मोशी हर इक सदा में है

सबब है एक ही मेरी हर इक तमन्ना का
बस एक नाम है 'आसिम' कि हर दुआ में है