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गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था | शाही शायरी
gaya to husn na diwar mein na dar mein tha

ग़ज़ल

गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था

अबुल मुजाहिद ज़ाहिद

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गया तो हुस्न न दीवार में न दर में था
वो एक शख़्स जो मेहमान मेरे घर में था

नजात धूप से मिलती तो किस तरह मिलती
मिरा सफ़र तो मियाँ दश्त-ए-बे-शजर में था

ग़म-ए-ज़माना की नागन ने डस लिया सब को
वही बचा जो तिरी ज़ुल्फ़ के असर में था

खुली जो आँख तो अफ़्सून-ए-ख़्वाब टूट गया
अभी अभी कोई चेहरा मिरी नज़र में था

न आई घर में कभी इक किरन भी सूरज की
अगरचे मेरा मकाँ वादी-ए-सहर में था

मिला न घर से निकल कर भी चैन ऐ 'ज़ाहिद'
खुली फ़ज़ा में वही ज़हर था जो घर में था