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ग़म-ए-हयात के पेश-ओ-अक़ब नहीं पढ़ता | शाही शायरी
gham-e-hayat ke pesh-o-aqab nahin paDhta

ग़ज़ल

ग़म-ए-हयात के पेश-ओ-अक़ब नहीं पढ़ता

अफ़सर माहपुरी

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ग़म-ए-हयात के पेश-ओ-अक़ब नहीं पढ़ता
ये दौर वो है जो शेर-ओ-अदब नहीं पढ़ता

कोई तो बात है रूदाद-ए-ख़ून-ए-नाहक़ में
कहीं कहीं से वो पढ़ता है सब नहीं पढ़ता

किसी का चेहरा-ए-ताबाँ कि माह-ए-रख़्सशंदा
जो पढ़ने वाला है क़ुरआँ वो कब नहीं पढ़ता

वो कौन है जो तुझे रात दिन नहीं लिखता
वो कौन है जो तुझे रोज़-ओ-शब नहीं पढ़ता

वो अब तो इस क़दर इज़हार-ए-हक़ से डरता है
अगर लिखा हो कहीं लब तो लब नहीं पढ़ता

न जाने इन दिनों क्या हो गया है साक़ी को
निगाह-ए-रिन्द में हुस्न-ए-तलब नहीं पढ़ता

उसी का रंग है 'अफ़सर' उसी की ख़ुश्बू है
मिरा कलाम कोई बे-सबब नहीं पढ़ता