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ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना | शाही शायरी
ghairon pe khul na jae kahin raaz dekhna

ग़ज़ल

ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ा-ए-ग़म्माज़ देखना

उड़ते ही रंग-ए-रुख़ मिरा नज़रों से था निहाँ
इस मुर्ग़-ए-पर-शिकस्ता की परवाज़ देखना

दुश्नाम-ए-यार तब-ए-हज़ीं पर गिराँ नहीं
ऐ हम-नफ़स नज़ाकत-ए-आवाज़ देखना

देख अपना हाल-ए-ज़ार मुनज्जिम हुआ रक़ीब
था साज़गार ताला-ए-ना-साज़ देखना

बद-काम का मआल बुरा है जज़ा के दिन
हाल-ए-सिपहर-ए-तफ़रक़ा-अंदाज़ देखना

मत रखियो गर्द-ए-तारिक-ए-उश्शाक़ पर क़दम
पामाल हो न जाए सर-अफ़राज़ देखना

मेरी निगाह-ए-ख़ीरा दिखाते हैं ग़ैर को
बे-ताक़ती पे सरज़निश-ए-नाज़ देखना

तर्क-ए-सनम भी कम नहीं सोज़-ए-जहीम से
'मोमिन' ग़म-ए-मआल का आग़ाज़ देखना