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गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे | शाही शायरी
gah pir-e-shaiKH gah murid-e-mughan rahe

ग़ज़ल

गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे

क़ाएम चाँदपुरी

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गह पीर-ए-शैख़ गाह मुरीद-ए-मुग़ाँ रहे
अब तक तो आबरू से निभी है जहाँ रहे

दुनिया में हम रहे तो कई दिन प इस तरह
दुश्मन के घर में जैसे कोई मेहमाँ रहे

ऐ दीदा दिल को रोते हो क्या तुम हमें तो याँ
ये झींकना पड़ा है किसी तरह जाँ रहे

क़िस्मत तो देख बार भी अपना गिरा तो वाँ
जिस दश्त-ए-पुर-ख़तर में कई कारवाँ रहे

सोहबत की गर्मी हम से कोई सीखे मिस्ल-ए-शम्अ
सारे हुए सफ़ेद प तद भी जवाँ रहे

मस्जिद से गर तू शैख़ निकाला हमें तो क्या
'क़ाएम' वो मय-फ़रोश की अपने दुकाँ रहे

'क़ाएम' इसी ज़मीं को तू फिर कह पर इस तरह
सुन कर जिसे कि चर्ख़ में नित आसमाँ रहे