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एक से सिलसिले हैं सब हिज्र की रुत बता गई | शाही शायरी
ek se silsile hain sab hijr ki rut bata gai

ग़ज़ल

एक से सिलसिले हैं सब हिज्र की रुत बता गई

पीरज़ादा क़ासीम

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एक से सिलसिले हैं सब हिज्र की रुत बता गई
फिर वही सुब्ह आएगी फिर वही शाम आ गई

मेरे लहू में जल उठे उतने ही ताज़ा-दम चराग़
वक़्त की साज़िशी हवा जितने दिए बुझा गई

मैं भी ब-पास-ए-दोस्ताँ अपने ख़िलाफ़ हो गया
अब यही रस्म-ए-दोस्ती मुझ को भी रास आ गई

तुंद हवा के जश्न में लोग गए तो थे मगर
तन से कोई क़बा छिनी सर से कोई रिदा गई

दिल-ज़दगाँ के क़ाफ़िले दूर निकल चुके तमाम
उन की तलाश में निगाह अब जो गई तो क्या गई

आख़िर-ए-शब की दास्ताँ और करें भी क्या बयाँ
एक ही आह-ए-सर्द थी सारे दिए बुझा गई