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दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा | शाही शायरी
dil mubtala-e-lazzat-e-azar hi raha

ग़ज़ल

दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा

दाग़ देहलवी

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दिल मुब्तला-ए-लज़्ज़त-ए-आज़ार ही रहा
मरना फ़िराक़-ए-यार में दुश्वार ही रहा

हर दम ये शौक़ था उसे क़ुर्बान कीजिए
मैं वस्ल में भी जान से बे-ज़ार ही रहा

एहसान-ए-अफ़्व-ए-जुर्म से वो शर्मसार हूँ
बख़्शा गया मैं तो भी गुनहगार ही रहा

होती हैं हर तरह से मिरी पासदारियाँ
दुश्मन के पास भी वो मिरा यार ही रहा

दिन पहलुओं से टाल दिया कुछ न कह सके
हर चंद उन को वस्ल का इंकार ही रहा

ज़ाहिद की तौबा तौबा रही घूँट घूँट पर
सौ बोतलें उड़ा के भी हुश्यार ही रहा

देखीं हज़ार रश्क-ए-मसीहा की सूरतें
अच्छा रहा जो इश्क़ का बीमार ही रहा

सदक़े में तुम ने छोड़ दिए हैं बहुत असीर
मैं भी रिहा हुआ कि गिरफ़्तार ही रहा

लज़्ज़त वफ़ा में है न किसी की जफ़ा में है
दिलदार ही रहा न दिल-आज़ार ही रहा

जल्वे के बाद वस्ल की ख़्वाहिश ज़रूर थी
वो क्या रहा जो आशिक़-ए-दीदार ही रहा

कहते हैं जल के ग़ैर मोहब्बत से 'दाग़' की
माशूक़ उस के पास वफ़ादार ही रहा