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दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं | शाही शायरी
dil ka safar bas ek hi manzil pe bas nahin

ग़ज़ल

दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं

मुनीर नियाज़ी

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दिल का सफ़र बस एक ही मंज़िल पे बस नहीं
इतना ख़याल उस का हमें इस बरस नहीं

देखो गुल-ए-बहार-ए-असर दश्त-ए-शाम में
दीवार-ओ-दर कोई भी कहीं पेश-ओ-पस नहीं

आया नहीं यक़ीन बहुत देर तक हमें
अपने ही घर का दर है ये बाब-ए-क़फ़स नहीं

ऐसा सफ़र है जिस की कोई इंतिहा नहीं
ऐसा मकाँ है जिस में कोई हम-नफ़स नहीं

आएगी फिर बहार इसी शहर में 'मुनीर'
तक़दीर इस नगर की फ़क़त ख़ार-ओ-ख़स नहीं