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दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए | शाही शायरी
dil-girafta hi sahi bazm saja li jae

ग़ज़ल

दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए

अहमद फ़राज़

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दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए

रफ़्ता रफ़्ता यही ज़िंदाँ में बदल जाते हैं
अब किसी शहर की बुनियाद न डाली जाए

मुसहफ़-ए-रुख़ है किसी का कि बयाज़-ए-हाफ़िज़
ऐसे चेहरे से कभी फ़ाल निकाली जाए

वो मुरव्वत से मिला है तो झुका दूँ गर्दन
मेरे दुश्मन का कोई वार न ख़ाली जाए

बे-नवा शहर का साया है मिरे दिल पे 'फ़राज़'
किस तरह से मिरी आशुफ़्ता-ख़याली जाए