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दिल गया रौनक़-ए-हयात गई | शाही शायरी
dil gaya raunaq-e-hayat gai

ग़ज़ल

दिल गया रौनक़-ए-हयात गई

जिगर मुरादाबादी

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दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई

दिल धड़कते ही फिर गई वो नज़र
लब तक आई न थी कि बात गई

दिन का क्या ज़िक्र तीरा-बख़्तों में
एक रात आई एक रात गई

तेरी बातों से आज तो वाइ'ज़
वो जो थी ख़्वाहिश-ए-नजात गई

उन के बहलाए भी न बहला दिल
राएगाँ सई-ए-इल्तिफ़ात गई

मर्ग-ए-आशिक़ तो कुछ नहीं लेकिन
इक मसीहा-नफ़स की बात गई

अब जुनूँ आप है गरेबाँ-गीर
अब वो रस्म-ए-तकल्लुफ़ात गई

हम ने भी वज़-ए-ग़म बदल डाली
जब से वो तर्ज़-ए-इल्तिफ़ात गई

तर्क-ए-उल्फ़त बहुत बजा नासेह
लेकिन उस तक अगर ये बात गई

हाँ मज़े लूट ले जवानी के
फिर न आएगी ये जो रात गई

हाँ ये सरशारियाँ जवानी की
आँख झपकी ही थी कि रात गई

जल्वा-ए-ज़ात ऐ मआ'ज़-अल्लाह
ताब-ए-आईना-ए-सिफ़ात गई

नहीं मिलता मिज़ाज-ए-दिल हम से
ग़ालिबन दूर तक ये बात गई

क़ैद-ए-हस्ती से कब नजात 'जिगर'
मौत आई अगर हयात गई