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दिल अपनी तलब में सादिक़ था घबरा के सू-ए-मतलूब गया | शाही शायरी
dil apni talab mein sadiq tha ghabra ke su-e-matlub gaya

ग़ज़ल

दिल अपनी तलब में सादिक़ था घबरा के सू-ए-मतलूब गया

शाद अज़ीमाबादी

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दिल अपनी तलब में सादिक़ था घबरा के सू-ए-मतलूब गया
दरिया से ये मोती निकला था दरिया ही में जा कर डूब गया

अहवाल-ए-जवानी पीरी में क्या अर्ज़ करूँ इक क़िस्सा है
वो तर्ज़ गई वो वज़्अ गई अंदाज़ गया उस्लूब गया

ला-रैब ख़मोशी ने तेरी तासीर दिखा दी मस्तों को
बे-बाक जो मय-कश था साक़ी उस बज़्म से वो महजूब गया

बे-राहिला-व-बे-ज़ाद-ए-सफ़र रहमत पे भरोसा फ़रमा कर
जो मुल्क-ए-अदम में बसने को इस तरह गया वो ख़ूब गया

बद-हाल बहुत था उस पर भी ऐ यार किसी ने ली न ख़बर
बड़ मार के तेरे कूचे से आख़िर को तिरा मज्ज़ूब गया

रिज़वाँ ने किया दर ख़ुल्द का वा हूरें हुईं सदक़े आ आ कर
ग़िल्माँ ने क़दम चूमे उस के जो तेरी तरफ़ मंसूब गया

ताक़त जो नहीं अब हैरत से तस्वीर का आलम रहता है
वो आख़िर-ए-शब की आह गई वो लग़रा-ए-महबूब गया

याँ अपनी सज़ा भुगती उस ने रहमत की नज़र होगी उस पर
हर-चंद ख़ता-कार-ए-उल्फ़त कूचे से तिरे मा'तूब गया

हैरत है अबस ऐ जो इन बेश-बहा मंसूबों पर
इस तरह के मोती तब निकले जब ज़ेर-ए-ज़मीं मैं डूब गया

क्या उस का सबब मैं अर्ज़ करूँ कुछ वाक़िए ऐसे पेश आए
मैं रोता हुआ आया था यहाँ चुप याँ से गया मरऊब गया

कूचे में तिरे अब 'शाद' नहीं ले पाक ख़ुदा ने की ये ज़मीं
सद शुक्र सरा-ए-फ़ानी से आख़िर वो सग-ए-मायूब गया