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देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का | शाही शायरी
dekhna har subh tujh ruKHsar ka

ग़ज़ल

देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का

वली मोहम्मद वली

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देखना हर सुब्ह तुझ रुख़्सार का
है मुताला मतला-ए-अनवार का

बुलबुल ओ परवाना करना दिल के तईं
काम है तुझ चेहरा-ए-गुल-नार का

सुब्ह तेरा दर्स पाया था सनम
शौक़-ए-दिल मोहताज है तकरार का

माह के सीने उपर ऐ शम्अ-रू
दाग़ है तुझ हुस्न की झलकार का

दिल कूँ देता है हमारे पेच-ओ-ताब
पेच तेरे तुर्रा-ए-तर्रार का

जो सुन्या तेरे दहन सूँ यक बचन
भेद पाया नुस्ख़ा-ए-असरार का

चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का

आरसी के हाथ सूँ डरता है ख़त
चोर कूँ है ख़ौफ़ चौकीदार का

सर-कशी आतिश-मिज़ाजी है सबब
नासेहों को गर्मी-ए-बाज़ार का

ऐ 'वली' क्यूँ सुन सके नासेह की बात
जो दिवाना है परी-रुख़्सार का