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चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई | शाही शायरी
chehre pe chamchamati hui dhup mar gai

ग़ज़ल

चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई

आदिल मंसूरी

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चेहरे पे चमचमाती हुई धूप मर गई
सूरज को ढलता देख के फिर शाम डर गई

मबहूत से खड़े रहे सब बस की लाइन में
कूल्हे उछालती हुई बिजली गुज़र गई

सूरज वही था धूप वही शहर भी वही
क्या चीज़ थी जो जिस्म के अंदर ठिठर गई

ख़्वाहिश सुखाने रक्खी थी कोठे पे दोपहर
अब शाम हो चली मियाँ देखो किधर गई

तहलील हो गई है हवा में उदासियाँ
ख़ाली जगह जो रह गई तन्हाई भर गई

चेहरे बग़ैर निकला था उस के मकान से
रुस्वाइयों की हद से भी आगे ख़बर गई

रंगों की सुर्ख़ नाफ़ दाखिल्या गुल-आफ़ताब
अंधी हवाएँ ख़ार खटक कान भर गई