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चराग़ सामने वाले मकान में भी न था | शाही शायरी
charagh samne wale makan mein bhi na tha

ग़ज़ल

चराग़ सामने वाले मकान में भी न था

जमाल एहसानी

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चराग़ सामने वाले मकान में भी न था
ये सानेहा मिरे वहम-ओ-गुमान में भी न था

जो पहले रोज़ से दो आँगनों में था हाइल
वो फ़ासला तो ज़मीन आसमान में भी न था

ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो न सके
ये रंज है कि कोई दरमियान में भी न था

हवा न जाने कहाँ ले गई वो तीर कि जो
निशाने पर भी न था और कमान में भी न था

'जमाल' पहली शनासाई का वो इक लम्हा
उसे भी याद न था मेरे ध्यान में भी न था