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चमका जो तीरगी में उजाला बिखर गया | शाही शायरी
chamka jo tirgi mein ujala bikhar gaya

ग़ज़ल

चमका जो तीरगी में उजाला बिखर गया

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

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चमका जो तीरगी में उजाला बिखर गया
नन्हा सा एक जुगनू बड़ा काम कर गया

वो नींद के सफ़र में तो मख़मूर था बहुत
आँखें खुलीं तो ख़्वाब के मंज़र से डर गया

आँसू थे इस क़दर मिरी चश्म-ए-मलाल में
हर गोशा गोशा शहर का अश्कों से भर गया

फैली हुई है चाँदनी एहसास में मिरे
ये कौन मेरी ज़ात के अंदर उतर गया

हर शख़्स ही कमंदें 'ज़फ़र' फेंकने लगा
इक पल के वास्ते जो ख़ला में ठहर गया