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चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है | शाही शायरी
chaak-pairahani-e-gul ko saba jaanti hai

ग़ज़ल

चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है

अहमद फ़राज़

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चाक-पैराहनी-ए-गुल को सबा जानती है
मस्ती-ए-शौक़ कहाँ बंद-ए-क़बा जानती है

हम तो बदनाम-ए-मोहब्बत थे सो रुस्वा ठहरे
नासेहों को भी मगर ख़ल्क़-ए-ख़ुदा जानती है

कौन ताक़ों पे रहा कौन सर-ए-राहगुज़र
शहर के सारे चराग़ों को हवा जानती है

हवस इनआ'म समझती है करम को तेरे
और मोहब्बत है कि एहसाँ को सज़ा जानती है