EN اردو
चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं | शाही शायरी
chahaten mausami parinde hain rut badalte hi lauT jate hain

ग़ज़ल

चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं

निदा फ़ाज़ली

;

चाहतें मौसमी परिंदे हैं रुत बदलते ही लौट जाते हैं
घोंसले बन के टूट जाते हैं दाग़ शाख़ों पे चहचहाते हैं

आने वाले बयाज़ में अपनी जाने वालों के नाम लिखते हैं
सब ही औरों के ख़ाली कमरों को अपनी अपनी तरह सजाते हैं

मौत इक वाहिमा है नज़रों का साथ छुटता कहाँ है अपनों का
जो ज़मीं पर नज़र नहीं आते चाँद तारों में जगमगाते हैं

ये मुसव्विर अजीब होते हैं आप अपने हबीब होते हैं
दूसरों की शबाहतें ले कर अपनी तस्वीर ही बनाते हैं

यूँ ही चलता है कारोबार-ए-जहाँ है ज़रूरी हर एक चीज़ यहाँ
जिन दरख़्तों में फल नहीं आते वो जलाने के काम आते हैं