EN اردو
चाहत ग़म्ज़े जता रही है | शाही शायरी
chahat ghamze jata rahi hai

ग़ज़ल

चाहत ग़म्ज़े जता रही है

आग़ा अकबराबादी

;

चाहत ग़म्ज़े जता रही है
वहशत सहरा दिखा रही है

ग़ुंचों का जिगर हिला रही है
बुलबुल क्या गुल खिला रही है

यूसुफ़ का पता लगा रही है
ख़ुशबू कनआँ में आ रही है

शीरीं क्या रंग ला रही है
आशिक़ का लहू बहा रही है

किस शोख़ को दीजिए दिल-ए-ज़ार
किस में साहब वफ़ा रही है

आवाज़ा-ए-फ़ैज़ है जहाँ में
जिस की शोहरत सदा रही है

डाइन है परी-वशों की फ़ुर्क़त
दिल खा के कलेजा खा रही है

जाँ नज़र हुई परी-रुख़ों की
मिट्टी को हवा उड़ा रही है

चाहत की कशिश ने लो डुबो दी
यूसुफ़ को कुएँ झुका रही है

दिल में जो बसे हुए हैं गुल-रू
सुर्ख़ी आँखों में छा रही है

गहता हूँ जबीं को पा-ए-बुत से
तक़दीर लिखा मिटा रही है

हँसते हुए देख कर गुलों को
शबनम आँसू बहा रही है

अंधेर का आज सामना है
सुर्मा वो परी लगा रही है

क्यूँ जान नहीं निकलती 'आग़ा'
कैसे सदमे उठा रही है