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बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में | शाही शायरी
bahut ruk ruk ke chalti hai hawa Khaali makanon mein

ग़ज़ल

बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में

अहमद मुश्ताक़

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बहुत रुक रुक के चलती है हवा ख़ाली मकानों में
बुझे टुकड़े पड़े हैं सिगरेटों के राख-दानों में

धुएँ से आसमाँ का रंग मैला होता जाता है
हरे जंगल बदलते जा रहे हैं कार-ख़ानों में

भली लगती है आँखों को नए फूलों की रंगत भी
पुराने ज़मज़मे भी गूँजते रहते हैं कानों में

वही गुलशन है लेकिन वक़्त की पर्वाज़ तो देखो
कोई ताइर नहीं पिछले बरस के आशियानों में

ज़बानों पर उलझते दोस्तों को कौन समझाए
मोहब्बत की ज़बाँ मुम्ताज़ है सारी ज़बानों में