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अक़्ल से हासिल हुई क्या क्या पशीमानी मुझे | शाही शायरी
aql se hasil hui kya kya pashimani mujhe

ग़ज़ल

अक़्ल से हासिल हुई क्या क्या पशीमानी मुझे

हसरत मोहानी

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अक़्ल से हासिल हुई क्या क्या पशीमानी मुझे
इश्क़ जब देने लगा तालीम-ए-नादानी मुझे

रंज देगी बाग़-ए-रिज़वाँ की तन-आसानी मुझे
याद आएगा तिरा लुत्फ़-ए-सितम-रानी मुझे

मेरी जानिब है मुख़ातिब ख़ास कर वो चश्म-ए-नाज़
अब तो करनी ही पड़ेगी दिल की क़ुर्बानी मुझे

देख ले अब कहीं आ कर जो वो ग़फ़लत-शिआर
किस क़दर हो जाए मर जाने में आसानी मुझे

बे-नक़ाब आने को हैं मक़्तल में वो बे-शक मगर
देखने काहे को देगी मेरी हैरानी मुझे

सैंकड़ों आज़ादियाँ इस क़ैद पर 'हसरत' निसार
जिस के बाइस कहते हैं सब उन का ज़िंदानी मुझे