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अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे | शाही शायरी
apni aankhon ke samundar mein utar jaane de

ग़ज़ल

अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे

नज़ीर बाक़री

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अपनी आँखों के समुंदर में उतर जाने दे
तेरा मुजरिम हूँ मुझे डूब के मर जाने दे

ऐ नए दोस्त मैं समझूँगा तुझे भी अपना
पहले माज़ी का कोई ज़ख़्म तो भर जाने दे

ज़ख़्म कितने तिरी चाहत से मिले हैं मुझ को
सोचता हूँ कि कहूँ तुझ से मगर जाने दे

आग दुनिया की लगाई हुई बुझ जाएगी
कोई आँसू मिरे दामन पे बिखर जाने दे

साथ चलना है तो फिर छोड़ दे सारी दुनिया
चल न पाए तो मुझे लौट के घर जाने दे

ज़िंदगी मैं ने इसे कैसे पिरोया था न सोच
हार टूटा है तो मोती भी बिखर जाने दे

इन अँधेरों से ही सूरज कभी निकलेगा 'नज़ीर'
रात के साए ज़रा और निखर जाने दे