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अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ | शाही शायरी
amir lakh idhar se udhar zamana hua

ग़ज़ल

अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ

अमीर मीनाई

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अमीर लाख इधर से उधर ज़माना हुआ
वो बुत वफ़ा पे न आया मैं बे-वफ़ा न हुआ

सर-ए-नियाज़ को तेरा ही आस्ताना हुआ
शराब-ख़ाना हुआ या क़िमार-ख़ाना हुआ

हुआ फ़रोग़ जो मुझ को ग़म-ए-ज़माना हुआ
पड़ा जो दाग़ जिगर में चराग़-ए-ख़ाना हुआ

उम्मीद जा के नहीं उस गली से आने की
ब-रंग-ए-उम्र मिरा नामा-बर रवाना हुआ

हज़ार शुक्र न ज़ाए हुई मिरी खेती
कि बर्क़ ओ सैल में तक़्सीम दाना दाना हुआ

क़दम हुज़ूर के आए मिरे नसीब खुले
जवाब-ए-क़स्र-ए-सुलैमाँ ग़रीब-ख़ाना हुआ

तिरे जमाल ने ज़ोहरा को दौर दिखलाया
तिरे जलाल से मिर्रीख़ का ज़माना हुआ

कोई गया दर-ए-जानाँ पे हम हुए पामाल
हमारा सर न हुआ संग-ए-आस्ताना हुआ

फ़रोग़-ए-दिल का सबब हो गई बुझी जो हवस
शरार-ए-कुश्ता से रौशन चराग़-ए-ख़ाना हुआ

जब आई जोश पे मेरे करीम की रहमत
गिरा जो आँख से आँसू दुर-ए-यगाना हुआ

हसद से ज़हर तन-ए-आसमाँ में फैल गया
जो अपनी किश्त में सरसब्ज़ कोई दाना हुआ

चुने महीनों ही तिनके ग़रीब बुलबुल ने
मगर नसीब न दो रोज़ आशियाना हुआ

ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ में छाई ये तीरगी शब-ए-हिज्र
कि ख़ाल-ए-चेहरा-ए-ज़ख़्मी चराग़-ए-ख़ाना हुआ

ये जोश-ए-गिर्या हुआ मेरे सैद होने पर
कि चश्म-ए-दाम के आँसू से सब्ज़ दाना हुआ

न पूछ नाज़-ओ-नियाज़ उस के मेरे कब से हैं
ये हुस्न ओ इश्क़ तो अब है उसे ज़माना हुआ

उठाए सदमे पे सदमे तो आबरू पाई
अमीर टूट के दिल गौहर-ए-यगाना हुआ