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ऐ आरज़ू-ए-क़त्ल ज़रा दिल को थामना | शाही शायरी
ai aarzu-e-qatl zara dil ko thamna

ग़ज़ल

ऐ आरज़ू-ए-क़त्ल ज़रा दिल को थामना

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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ऐ आरज़ू-ए-क़त्ल ज़रा दिल को थामना
मुश्किल पड़ा मिरा मिरे क़ातिल को थामना

तासीर-ए-बे-क़रारी-ए-नाकाम आफ़रीं
है काम उन से शोख़-ए-शमाइल को थामना

देखे है चाँदनी वो ज़मीं पर न गिर पड़े
ऐ चर्ख़ अपने तू मह-ए-कामिल को थामना

मुज़्तर हूँ किस का तर्ज़-ए-सुख़न से समझ गया
अब ज़िक्र क्या है सामा-ए-आक़िल को थामना

हो सरसर-ए-फ़ुग़ाँ से न क्यूँकर वो मुज़्तरिब
मुश्किल हुआ है पर्दा-ए-महमिल को थामना

सीखे हैं मुझ से नाला-ए-नय आसमाँ-शिकन
सय्याद अब क़फ़स में अनादिल को थामना

ये ज़ुल्फ़ ख़म-ब-ख़म न हो क्या ताब-ए-ग़ैर है
तेरे जुनूँ-ज़दे की सलासिल को थामना

ऐ हमदम आह तल्ख़ी-ए-हिज्राँ से दम नहीं
गिरता है देख जाम-ए-हलाहिल को थामना

सीमाब-वार मर गए ज़ब्त-ए-क़लक़ से हम
क्या क़हर है तबीअत-ए-माइल को थामना

आग़ोश-ए-गोर हो गई आख़िर लहूलुहान
आसाँ नहीं है आप के बिस्मिल को थामना

सीने पे हाथ धरते ही कुछ दम पे बन गई
लो जान का अज़ाब हुआ दिल को थामना

बाक़ी है शौक़-ए-चाक-ए-गरेबाँ अभी मुझे
बस ऐ रफ़ूगर अपनी अनामिल को थामना

मत माँगियो अमान बुतों से कि है हराम
'मोमिन' ज़बान-ए-बेहूदा साइल को थामना