EN اردو
अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था | शाही शायरी
agarche roz-e-azal bhi yahi andhera tha

ग़ज़ल

अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था

अब्दुल हमीद अदम

;

अगरचे रोज़-ए-अज़ल भी यही अँधेरा था
तिरी जबीं से निकलता हुआ सवेरा था

पहुँच सका न मैं बर-वक़्त अपनी मंज़िल पर
कि रास्ते में मुझे रहबरों ने घेरा था

तिरी निगाह ने थोड़ी सी रौशनी कर दी
वगर्ना अर्सा-ए-कौनैन में अँधेरा था

ये काएनात और इतनी शराब-आलूदा
किसी ने अपना ख़ुमार-ए-नज़र बिखेरा था

सितारे करते हैं अब उस गली के गिर्द तवाफ़
जहाँ 'अदम' मिरे महबूब का बसेरा था