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अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले | शाही शायरी
agar gulshan taraf wo nau-KHat-e-rangin-ada nikle

ग़ज़ल

अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले

वली मोहम्मद वली

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अगर गुलशन तरफ़ वो नौ-ख़त-ए-रंगीं-अदा निकले
गुल ओ रैहाँ सूँ रंग-ओ-बू शिताबी पेशवा निकले

खिले हर ग़ुंचा-ए-दिल ज्यूँ गुल-ए-शादाब शादी सूँ
अगर टुक घर सूँ बाहर वो बहार-दिल-कुशा निकले

ग़नीम-ए-ग़म किया है फ़ौज-बंदी इश्क़-बाज़ां पर
बजा है आज वो राजा अगर नौबत बजा निकले

निसार उस के क़दम ऊपर करूँ अंझुवाँ के गौहर सब
अगर करने कूँ दिल-जूई वो सर्व-ए-ख़ुश-अदा निकले

सनम आए करूँगा नाला-ए-जाँ-सोज़ कूँ ज़ाहिर
मगर उस संग-दिल सूँ मेहरबानी की सदा निकले

रहे मानिंद-ए-लाल-ए-बे-बहा शाहाँ के ताज ऊपर
मोहब्बत में जो कुइ अस्बाब ज़ाहिर कूँ बहा निकले

बख़ीली दर्स की हरगिज़ न कीजो ऐ परी-पैकर
'वली' तेरी गली में जब कि मानिंद-ए-गदा निकले