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अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की | शाही शायरी
agar ghaflat se baz aaya jafa ki

ग़ज़ल

अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की

मोमिन ख़ाँ मोमिन

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अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की
तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की

मरे आग़ाज़-ए-उल्फ़त में हम अफ़्सोस
उसे भी रह गई हसरत जफ़ा की

कभी इंसाफ़ है देखा न दीदार
क़यामत अक्सर उस कू में रहा की

फ़लक के हाथ से मैं जा छुपूँ गर
ख़बर ला दे कोई तहतुस-सरा की

शब-ए-वस्ल-ए-अदू क्या क्या जला हूँ
हक़ीक़त खुल गई रोज़-ए-जज़ा की

चमन में कोई उस कू से न आया
गई बर्बाद सब मेहनत सबा की

कुशाद-ए-दिल पे बाँधी है कमर आज
नहीं है ख़ैरियत बंद-ए-क़बा की

किया जब इल्तिफ़ात उस ने ज़रा सा
पड़ी हम को हुसूल-ए-मुद्दआ की

कहा है ग़ैर ने तुम से मिरा हाल
कहे देती है बेबाकी अदा की

तुम्हें शोर-ए-फ़ुग़ाँ से मेरे क्या काम
ख़बर लो अपनी चश्म-ए-सुर्मा-सा की

दिया इल्म ओ हुनर हसरत-कशी को
फ़लक ने मुझ से ये कैसी दग़ा की

ग़म-ए-मक़्सद-रसी ता नज़अ और हम
अब आई मौत बख़्त-ए-ना-रसा की

मुझे ऐ दिल तिरी जल्दी ने मारा
नहीं तक़्सीर उस देर-आश्ना की

जफ़ा से थक गए तो भी न पूछा
कि तू ने किस तवक़्क़ो पर वफ़ा की

कहा उस बुत से मरता हूँ तो 'मोमिन'
कहा मैं क्या करूँ मर्ज़ी ख़ुदा की