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अच्छा है वो बीमार जो अच्छा नहीं होता | शाही शायरी
achchha hai wo bimar jo achchha nahin hota

ग़ज़ल

अच्छा है वो बीमार जो अच्छा नहीं होता

मोहसिन असरार

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अच्छा है वो बीमार जो अच्छा नहीं होता
जब तजरिबे होते हैं तो धोका नहीं होता

जिस लफ़्ज़ को मैं तोड़ के ख़ुद टूट गया हूँ
कहता भी तो वो उस को गवारा नहीं होता

तेरी ही तरह आता है आँखों में तिरा ख़्वाब
सच्चा नहीं होता कभी झूटा नहीं होता

तकज़ीब-ए-जुनूँ के लिए इक शक ही बहुत है
बारिश का समय हो तो सितारा नहीं होता

क्या क्या दर-ओ-दीवार मिरी ख़ाक में गुम हैं
पर उस को मिरा जिस्म गवारा नहीं होता

या दिल नहीं होता मिरे होने के सबब से
या दिल के सबब से मिरा होना नहीं होता

किस रुख़ से तयक़्क़ुन को तबीअ'त में जगह दें
ऐसा नहीं होता कभी वैसा नहीं होता

हम लोग जो करते हैं वो होता ही नहीं है
होना जो नज़र आता है होना नहीं होता

जिस दिन के गुज़रते ही यहाँ रात हुई है
ऐ काश वो दिन मैं ने गुज़ारा नहीं होता

जब हम नहीं होते यहाँ आते हैं तग़य्युर
जब हम यहाँ होते हैं ज़माना नहीं होता

हम उन में हैं जिन की कोई हस्ती नहीं होती
हम टूट भी जाएँ तो तमाशा नहीं होता