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अब परिंदों की यहाँ नक़्ल-ए-मकानी कम है | शाही शायरी
ab parindon ki yahan naql-e-makani kam hai

ग़ज़ल

अब परिंदों की यहाँ नक़्ल-ए-मकानी कम है

अब्बास ताबिश

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अब परिंदों की यहाँ नक़्ल-ए-मकानी कम है
हम हैं जिस झील पे उस झील में पानी कम है

ये जो मैं भागता हूँ वक़्त से आगे आगे
मेरी वहशत के मुताबिक़ ये रवानी कम है

दे मुझे अंजुम-ओ-महताब से आगे की ख़बर
मुझ से फ़ानी के लिए आलम-ए-फ़ानी कम है

ग़म की तल्ख़ी मुझे नश्शा नहीं होने देती
ये ग़लत है कि तिरी चीज़ पुरानी कम है

ग़ैब के बाग़ का वो भेद खुला है मुझ पर
जिस का इबलाग़ परिंदों की ज़बानी कम है

हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
इक मोहब्बत के लिए एक जवानी कम है

इतना मुश्किल तो न था गुम-शुदगाँ का मिलना
हम ने ऐ दश्त तिरी ख़ाक ही छानी कम है

इस समय मौत की ख़ुश्बू के मुक़ाबिल 'ताबिश'
किसी आँगन में खिली रात-की-रानी कम है